
आधुनिक हिंदी साहित्य जगत में महादेवी वर्मा का योगदान अविस्मरणीय है। महादेवी छायावाद के महत्वपूर्ण स्तम्भों में से एक हैं। चाहे पद्य हो या गद्य महादेवी की लेखनी जिस संवेदना को शब्दबद्ध कर चुकी आज तक उसे कोई छू नहीं पाया। महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में एक संपन्न परिवार में हुआ था। महज सात वर्ष की अवस्था में महादेवी ने कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। वर्ष 1925 में जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, तब तक वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। उनकी रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं थीं। एक तरफ उनकी रचनाओं में प्रत्येक जीव के प्रति प्रेम और करुणा का भाव मिलता है तो दूसरी तरफ उनकी रचनाओं में एक दार्शनिकता-आध्यात्मिकता है और विद्रोहीपन मिलता है। महादेवी वर्मा का विवाह उनके बचपन में ही कर दिया गया था. बचपन में किये गए विवाह को उन्होंने मानने से इंकार कर दिया। इस प्रकार अपने बाल विवाह को खारिज करने वाली महादेवी स्त्री की आज़ादी और उसके सशक्तिकरण को मुखरित करने वाली पहली लेखिका थीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए करने के बाद उनकी ज़िन्दगी ने एक नयी करवट ली। कहा जाता है कि महादेवी का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर भी हुआ था। प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में एमए करने के बाद उन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या का पद संभाला। उन्होंने चाँद का निःशुल्क संपादन किया।
11 सितंबर 1987 की रात महादेवि वर्मा के जीवन की आखिरी रात साबित हुई. उन्होंने इलाहाबाद स्थित अपने घर में आखिरी सांसें ली। सच है ‘महादेवी’ युगों में पैदा होती हैं, उनकी कविताओं में जो दर्द, जो दर्शन मिलता है वो विरले पढ़ने को मिलता है. वह स्वयं तक सीमित नहीं बल्कि सम्पूर्ण संसार की बात करती हैं—-
खोज ही चिर प्राप्ति का वर,
साधना ही सिद्धि सुन्दर,
रुदन में कुख की कथा है,
विरह मिलने की प्रथा है,
शलभ जलकर दीप बन जाता निशा के शेष में!
आँसुओं के देश में!
महादेवी वर्मा की कलम के साथ ही उनका व्याख्यान भी बेहद सशक्त था। वे गंभीरता और धैर्य से सुनने वालों के लिए विषय को संवेदनशील बना देती थी तथा शब्दों को अपनी संवेदना में मिला कर परम आत्मीय भाव प्रवाहित करती थीं।अपनी शर्तों पर जीने वाली महादेवी की कलम स्त्री विमर्श से लेकर देह विमर्श तक हर मुद्दे पर बेबाकी से चली है। एक तरफ उनका संवेदनशील और गंभीर स्वभाव जो उनके लेखन और चित्रकला में भी दिखाई देता है तो दूसरी ओर उनकी विनोदप्रियता के भी अनेक किस्से हैं। महादेवी की गद्य रचनाओं में जो संवेदनाएं मिलती हैं वो भी उनके आस पास के संसार से ही जुडी हुयी है। गिल्लू गिलहरी हो या फिर सोना हिरनी सभी उनके आम जनजीवन का हिसा थे। उनकी कविताओं को जितना समझा जाता है उनके भेद और गहरे हो जाते है –
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी
आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेलाआधुनिक हिंदी साहित्य जगत में महादेवी वर्मा का योगदान अविस्मरणीय है। महादेवी छायावाद के महत्वपूर्ण स्तम्भों में से एक हैं। चाहे पद्य हो या गद्य महादेवी की लेखनी जिस संवेदना को शब्दबद्ध कर चुकी आज तक उसे कोई छू नहीं पाया। महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में एक संपन्न परिवार में हुआ था। महज सात वर्ष की अवस्था में महादेवी ने कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। वर्ष 1925 में जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, तब तक वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। उनकी रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं थीं। एक तरफ उनकी रचनाओं में प्रत्येक जीव के प्रति प्रेम और करुणा का भाव मिलता है तो दूसरी तरफ उनकी रचनाओं में एक दार्शनिकता-आध्यात्मिकता है और विद्रोहीपन मिलता है। महादेवी वर्मा का विवाह उनके बचपन में ही कर दिया गया था. बचपन में किये गए विवाह को उन्होंने मानने से इंकार कर दिया। इस प्रकार अपने बाल विवाह को खारिज करने वाली महादेवी स्त्री की आज़ादी और उसके सशक्तिकरण को मुखरित करने वाली पहली लेखिका थीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए करने के बाद उनकी ज़िन्दगी ने एक नयी करवट ली। कहा जाता है कि महादेवी का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर भी हुआ था। प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में एमए करने के बाद उन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या का पद संभाला। उन्होंने चाँद का निःशुल्क संपादन किया।
11 सितंबर 1987 की रात महादेवी वर्मा के जीवन की आखिरी रात साबित हुई. उन्होंने इलाहाबाद स्थित अपने घर में आखिरी सांसें ली। सच है ‘महादेवी’ युगों में पैदा होती हैं, उनकी कविताओं में जो दर्द, जो दर्शन मिलता है वो विरले पढ़ने को मिलता है. वह स्वयं तक सीमित नहीं बल्कि सम्पूर्ण संसार की बात करती हैं—-
खोज ही चिर प्राप्ति का वर,
साधना ही सिद्धि सुन्दर,
रुदन में कुख की कथा है,
विरह मिलने की प्रथा है,
शलभ जलकर दीप बन जाता निशा के शेष में!
आँसुओं के देश में!
महादेवी वर्मा की कलम के साथ ही उनका व्याख्यान भी बेहद सशक्त था। वे गंभीरता और धैर्य से सुनने वालों के लिए विषय को संवेदनशील बना देती थी तथा शब्दों को अपनी संवेदना में मिला कर परम आत्मीय भाव प्रवाहित करती थीं।अपनी शर्तों पर जीने वाली महादेवी की कलम स्त्री विमर्श से लेकर देह विमर्श तक हर मुद्दे पर बेबाकी से चली है। एक तरफ उनका संवेदनशील और गंभीर स्वभाव जो उनके लेखन और चित्रकला में भी दिखाई देता है तो दूसरी ओर उनकी विनोदप्रियता के भी अनेक किस्से हैं। महादेवी की गद्य रचनाओं में जो संवेदनाएं मिलती हैं वो भी उनके आस पास के संसार से ही जुडी हुयी है। गिल्लू गिलहरी हो या फिर सोना हिरनी सभी उनके आम जनजीवन का हिसा थे। उनकी कविताओं को जितना समझा जाता है उनके भेद और गहरे हो जाते है –
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी
आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला
Aaina Team