
हिन्दी सिर्फ हमारी भाषा नहीं बल्कि एक पूरी संस्कृति है। विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है हिन्दी। आंकड़ों के लिहाज से यह कहा जा सकता है कि आज हिन्दी विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है। हिन्दी भाषी जहां भी गए भाषा के साथ ही सम्पूर्ण संस्कृति लेकर गए, जिन्हें नए देश की आबो हवा में भी संरक्षित रखा और नए सिरे से प्रसारित करने का काम किया। मॉरीशस भी ऐसे ही देशों में से एक है जहां अठारहवीं सदी में बड़ी संख्या में भारतीयों को मजदूरी करने के उद्देश्य से लाया गया था। इन्हीं मजदूरों ने नए मॉरीशस की नींव रखी। वर्तमान समय में मॉरीशस को छोटा भारत की संज्ञा दी जाती है। यहाँ से हिन्दी की अनेक पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होती हैं। मॉरीशस में आर्यसभा संस्था 1903 से हिन्दी के प्रचार प्रसार एवं सामाजिक कार्यों में लगी हुई है। आज इस संस्था की 200 से ज़्यादा शाखाएं हैं जो हिन्दी सिखाती है। गिरमिटिया देशों में हिन्दी काफी फली फूली। त्रिनिदाद एवं टोबैगो के रहने वाले पंडित रामप्रसाद परिसान बताते हैं कि हिन्दी को इन देशों में दूसरी भाषा का दर्जा प्राप्त है। छोटे-छोटे रोजमर्रा के शब्दों के लिए प्रायः हिन्दी भाषा का ही प्रयोग किया जाता है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से हिन्दी का विस्तार विश्व स्तर पर बहुत तेज़ी से हुआ। वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार के क्षेत्र में हिन्दी की मांग तेजी से बढ़ी है। विश्व के सैकड़ों छोटे-बड़े केंद्रों में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर शोध स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हुई है। हिन्दी सीखने के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है।
घुमक्कड़ शास्त्र लेखन के प्रणेता राहुल सांकृ्त्यायन ने कहा था कि “नागरी लिपी दुनिया की सबसे वैज्ञानिक लिपी है, ठीक वैसे ही जैसे हिंदी भाषा दुनिया की सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है।” वर्तमान समय में विदेशों में दर्ज़नों पत्र-पत्रिकाएं नियमित रूप से हिन्दी में प्रकाशित हो रही हैं। अनेक देश अपने यहाँ एफएम पर हिन्दी में कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं, जो निश्चित ही इसकी वैश्विकता को दर्शाता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के प्रचार प्रसार में फिल्मों की अहम् भूमिका रही है। हिन्दी फिल्में और उसके गाने देश ही नहीं विदेशों में भी खासे लोकप्रिय रहे हैं। अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहां लोगों ने हिन्दी, गाना सीखने और फिल्मों को समझने की खातिर सीखी। आज इस भाषा के सामने कई चुनौतियां हैं। हिन्दी का बाजार बढा है लेकिन वह रोजगार की भाषा अभी भी नहीं हो पायी है। आज यह समझना जरूरी है कि भाषा महज संवाद का माध्यम नहीं बल्कि उसमें सम्पूर्ण संस्कृति निहित है। ऐसे में किसी भाषा के लुप्त होने का खतरा सिर्फ भाषा तक ही सीमित नहीं बल्कि एक सम्पूर्ण संस्कृति पर ख़तरा है। एक तरफ विदेशों में हिन्दी शिक्षण के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ रही है तो दूसरी ओर अपने देश में ही हिन्दी के साथ उपेक्षित सा व्यवहार होता है। महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा था कि “हिन्दी हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति का सरलतम स्त्रोत है।” फिर आखिर क्या वजह है जो हिन्दी की महत्ता को अपने देश में ही नज़रअंदाज़ किया जाता है। नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क जैसे देशों में किसी भी भाषा को सीखने वाले छात्र हैं तो उसकी शिक्षा उन्हें निःशुल्क दी जाती है, यही वजह है कि इन देशों में हिंदी को शिक्षा निःशुल्क दी जाती है।
वर्तमान में हिंदी विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, जो स्वागतयोग्य भी है, किन्तु कहीं ऐसा ना हो कि वैश्विक भाषा बनने की दौड़ में अपने देश में ही हिन्दी कमज़ोर पड़ जाए। यह एक मौक़ा है जब हम सभी को एक बार पुनः इस विषय पर गंभीरता से सोचना चाहिए।
टीम आईना न्यूज