
डॉ. स्वयंबरा
ऋषिकेश से दो-सवा दो घंटे के सफर के बाद हम देवप्रयाग पहुंचे। देवप्रयाग के बारे में पहले से भी खूब सुना था। यह गंगा के पंचप्रयागों में एक है। प्रयाग उसे कहते हैं जहां नदियों का संगम होता है। हमें देवप्रयाग से गुजरना भर था। पर शोर मचाती भागीरथी और चुप-चुप सी अलकनंदा ने उस जगह रुककर पूरा शहर निहारने पर मजबूर कर दिया।
जब हम पहुंचे, सूरज ढल रहा था। उसकी सुनहरी किरणों की आभा से पूरा देवप्रयाग जगमगा रहा था। लग रहा था मानो पूरा शहर सोने से बना हो। हालांकि मोबाइल उस दृश्य की सुंदरता की तस्वीर लेने में सक्षम न हो सका। फिर भी मैंने ढेर सारी तस्वीरें क्लिक की, जिनमें कुछ को पोस्ट किया है। हमारे साथ गाड़ी के ड्राइवर अश्विनी जी थे। उन्होंने सड़क के दूसरे किनारे ले जाकर हमें खड़ा कर दिया। वहां से जब हमने नीचे देखा तो रूह तृप्त हो गयी। बायीं तरफ से उछलती-कूदती भागीरथी आ रहीं थी और सामने थीं शांत, सरल अलकनंदा, दोनों ही मिलकर गंगा बनकर आगे बहे जा रहीं थीं। अलकनन्दा नदी उत्तराखण्ड के सतोपंथ और भागीरथ कारक हिमनदों से निकलकर यहां पहुंचती है जबकि भागीरथी नदी का प्रमुख जलस्रोत गंगोत्री हिमनद का गोमुख और थोड़ा सा खाटलिंग हिमनद है।
जिस जगह ये मिलती हैं वहां एक त्रिकोण सा या कहें अंग्रेजी के वाई जैसी संरचना बन रही थी। नीचे उसी जगह कई मंदिर दिख रहे थे। दोनों तरफ के पहाड़ पुल से जुड़े थे। जहां कोण बन रहा था वहां एक बड़ा सा चबूतरा जैसा था। उसपर लोगों की भीड़ जमा थी। ऊपर में हम भी जहाँ खडे थे, वहां लोग जमा थे। सभी तीनों नदियों को निहार रहे थे। पर न आंखें तृप्त हो रहीं थीं न ही मन संतुष्ट हो रहा था। वो पूरा दृश्य इतना सुंदर और सुकून भरा था कि जी चाह रहा था बस यहीं खड़ी रहूं और निहारती रहूं।
सुनती-पढ़ती रही थी कि भागीरथी और अलकनंदा के पानी का रंग अलग-अलग है। पर जब हमने देखा तो दोनों का रंग कमोवेश एक जैसा ही था-हरा हरा सा । गढ़वाल क्षेत्र में मान्यतानुसार भगीरथी नदी को सास तथा अलकनंदा नदी को बहू कहा जाता है। यह जानकर प्रियंबरा ने हंसते हुए कहा कि इसीलिए भागीरथी भड़-भड़ कर रहीं और अलकनंदा शांत हैं। हम दोनों देर तक इस बात पर मुस्कुराते रहे।
कहते हैं जब राजा भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर उतरने को राजी कर लिया तो 33 करोड़ देवी-देवता भी गंगा के साथ स्वर्ग से उतरे। तब उन्होंने अपना आवास देवप्रयाग में बनाया। क्योंकि भागीरथी और अलकनंदा के संगम के बाद यहीं से पवित्र नदी गंगा का उद्भव हुआ है। यहीं पहली बार यह नदी गंगा के नाम से जानी जाती है।
अपनी भव्यता और गोल संरचना के कारण ये निगाहों को आकर्षित कर रही थी। चश्मा लगाकर देखा तो लिखा था ‘सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी’। मतलब देवप्रयाग में एक केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय भी है जो एक बड़े से पहाड़ पर स्थित है। उसे देखकर हमें बेहद आश्चर्य हुआ कि ऐसी दुर्गम जगहों पर भी सेंट्रल यूनिवर्सिटी जैसी संस्था है पर यही बात अच्छी भी लगी।
शाम हो चुकी थी और हमें अभी दूर जाना था। इसलिए हमने मन को कहा – “हे मन, अब मोह को त्यागो।” फिर क्या था एक झटके में हम मुड़े और वापस गाड़ी में बैठ गए। हमारा सफर शुरू हो चुका था। पर अब एक बात तय हो गयी थी कि हमारी मंजिल जितनी खूबसूरत थी, यह सफर भी उतना ही खूबसूरत होनेवाला था। हालांकि शिवपुरी, ऋषिकेश में इसकी झलक मिल चुकी थी, पर कंफरमेशन अब जाकर हुआ था। 😀