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आदि शंकराचार्य की तपोभूमि ज्योतिर्मठ

उत्तराखंड के यात्रा के दरमियान पहुंचे जोशीमठ

डॉ.स्वयम्बरा 

कुछ चीजें जाने कैसे हो जाती हैं….जिनके बारे में न हमने सोचा होता है, न ही कुछ प्रयास किया होता है,पर अचानक से सब सामने आ जाता है।

जिंदगी कुछ सालों में पूरे 360 डिग्री घूम चुकी है। बहुत कुछ नया हो रहा। पुराना खत्म हो रहा। 2021 के साल ने मानसिक शारीरिक दोनों तौर पर परेशान कर दिया था। एक शाम बहुत बेचैन थी। मेरी बहन ने महामृत्युंजय मंत्र चला दिया। मुझे नहीं पता क्यों, पर दिमाग शांत होता चला गया। जबकि इस मंत्र पर या महादेव पर घोर आस्था रही थी, ऐसा भी नहीं है। उन दिनों रोज ही कई-कई बार इसे सुना करती थी। धीरे-धीरे महादेव की तरफ झुकाव बढ़ने लगा। इधर कुछ महीनों से निर्वाण षट्कम बहुत सुना। जोशीमठ जाने से पूर्व तक दोनों के कनेक्शन के बारे में सोचा तक नहीं था। हम तो घूमने जा रहे थे। बर्फ देखने जा रहे थे। पर जोशीमठ पहुंचकर जब गूगल किया तो चौंक गयी कि हम वहां थे जो आदि शंकराचार्य की तपोभूमि रही थी और शंकराचार्य ने ही निर्वाण षट्कम की रचना की थी। 

 

जब हम मठ में पहुंचे तो अंधेरा हो चुका था। जो मंदिर सुसज्जित था वह बंद हो चुका था। हमारे निवेदन पर भी नहीं खुला। तभी कुछ कदमों की दूरी पर, ऊपर से एक महाशय ने इशारा किया और चिल्लाकर कहा-मंदिर खुला है, इधर आ जाओ। उधर अंधेरा सा था। थोड़ा हिचकते हुए हम ऊपर की ओर बढ़ चले। उन्होंने कहा आइए आपको आदि शंकराचार्य की तपोभूमि दिखाते हैं। हम आश्चर्य में पड़े कि वो जो भव्य मंदिर है वो तपोभूमि नहीं। खुश भी हुए कि जिस कारण हम उस जगह पर गए, वो आस पूरी हो रही थी।

ऊपर चढ़ने के बाद सबसे पहले शनिदेव के दर्शन हुए। थोड़ा और चलने पर एक बहुत पुराना छोटा सा मंदिर दिखा। बाहर जूते उतारकर हमने मंदिर में प्रवेश किया। अंदर बरामदे में पत्थर की बनी नंदी महाराज की कई मूर्तियां, गणेश भगवान की मूर्तियां रखीं हुईं थीं। उन्हें जिस प्रकार गढ़ा गया था, देखकर लग रहा था कि पुरानी हैं पर पता चला कि उनकी आयु हज़ार साल से ऊपर की है। हम मंदिर के गर्भगृह में गए। वहां शिवलिंग, नंदी महाराज और कुछ अन्य मूर्तियां थी। कहते हैं ज्ञान प्राप्ति के बाद शंकराचार्य ने इसी स्वयंभू शिवलिंग की पूजा की थी।

गर्भगृह के दरवाजे के सामने सैकड़ों घंटियां लटक रहीं थीं। उन महाशय ने हमें बैठने को कहा। फिर वे शंकराचार्य की कथा सुनाने लगे। हालांकि उनकी बातों में अतिशयोक्तियां थीं पर वे जितने उत्साह से बता रहे थे कि हम उनकी बातें सुनने पर मजबूर हो गए। वहीं बायीं तरफ ताखे पर जलता हुआ, एक बड़ा सा दीपक रखा था। महाशय ने बताया यह दीपक उसी समय से जल रहा जब यहां आदि शंकराचार्य सशरीर मौजूद थे। वह हमेशा जलता रहता है। हमने तस्वीरें लेने को पूछा तो उन्होंने मना कर दिया। हमने शिवलिंग पर जल चढ़ाया, प्रसाद लिया और बाहर बरामदे में आए। वहां बैठे नंदी महाराज और दूसरी मूर्तियों की तस्वीरें ली।

फिर उन्होंने दिखाया उस अत्यधिक चर्चित कल्पवृक्ष को, जो हज़ारों साल पुराना है। असल में यह शहतूत का पेड़ है। कहते हैं इसी पेड़ के नीचे बैठकर शंकराचार्य ने तपस्या की थी। उस पेड़ को देखना, हैरान कर रहा था।

पत्थर तो फिर भी करोड़ों साल टिक जाते हैं। पर किसी सजीव का इतने सालों तक बचे रहना, वह भी पहाड़ की कठिन स्थितियों में, आश्चर्य ही है। इस पेड़ का तना बहुत बड़ा, मोटा था। डालियों का विस्तार भी काफी था। हमने उसे छुआ। दोनों हाथों से पकड़ा। पेड़ की जिजीविषा को प्रणाम किया। यह पेड़ और मंदिर जिस पहाड़ी पर है उसके नीचे एक गुफा है, जहां शंकराचार्य निवास करते थे। हम कुछ सीढियां उतर कर उस गुफा तक गए। हालांकि अब तो वह गुफा से ज्यादा दो कमरे का मकान सा लग रहा था। उस गुफा में दरवाजा लगा दिया गया है। अंदर शंकराचार्य की प्रतिमा है।

सबकुछ देखकर अच्छा लग रहा था कि जिनके बारे में हमने पढ़ा है, जिनका लिखा रोज ही सुनते, उन्होंने जिस जगह को रहने के लिए चुना, जहां ज्ञान प्राप्त किया, हम वहीं खड़े थे। हमने उस पेड़ को देखा जो अपनी जिद की बदौलत आज भी जिंदा है। हमने उस दीपक को देखा जो निरंतर रौशनी बिखेर रहा। हमने ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का उद्घोष करनेवाले की तपोभूमि ज्योर्तिमठ पर माथा टेक लिया था।

फोटोग्राफी :-डॉ. स्वयंबरा 

 

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